A message for everyone in regard of God’s most unique
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अभी कुछ दिनों से ..
अभी कुछ दिनों से ..
A message for everyone in regard of God’s most unique
Khas Din, Khas Nazm
मैं शायर तो नहीं ..
आओ नज़्म कहें ..
फिर मुस्कुरायेगा हिन्दुस्तान – Love and Hope
जानां, मैं क़ैद में करवट बदल रहा हूँ
नींद में नाज़नीं ख़्वाबों से उलझ रहा हूँ
ख़्वाबों में तुम्हारे गेसू महकते हैं
मैं क्या बताऊँ, मैं कैसे सँभल रहा हूँ
मुझे मालूम है तुम भी रोज़ अटरिया पे
दिन भर का जलता सूरज फाँकती हो
किसी लम्हे की खिड़की मेरी जानिब खुले
तुम हर लम्हा-लम्हा, घड़ी ताकती हो
तुम हो हज़ारों मील दूर, गिला न करो
तुम गंगा के पानी में हथेली डुबाकर
अपना लम्स छोड़ देना आँसू मिलाकर
गंगा समंदर से मिलेगी बाहें फैला कर
मैं साहिल की रेती पे लेट जाऊँगा
आगोश में तुम्हारा लम्स समेट लाऊँगा
जानां, तुम्हे ये बताना है, देखो कि
क़फ़स में रोज़ मरने का मुक़ाम आया
मगर कूचे से इंसा फिर भी मुस्कुराया
बड़ी ज़िद्दी ज़ात है आदमी इस दहर में
मौत की गोद में जीने से बाज न आया
ज़माने ने माज़ी में बड़े कहर देखे हैं
औरत के बहते आँसू में बहर देखें हैं
जंग में फ़ना होती आदम की निशानी देखी है
महाज़े-जंग में बेवा की लुटती जवानी देखी है
हर वबाल से उलझकर इंसान निकल आया है
दर्द की ख़ातिर ही दिल के कोने में बल आया है
फ़ैज़ की शाम ग़म की है, मगर शाम ही तो है
रात के बाद उठती सुबह, हमारे नाम ही तो है
देखना मुल्क़ की साँस फिर से लौट आयेगी
सखी आँगन में बैठी, तुम्हारे मेहँदी लगाएगी
फ़स्ल-ए-गुल खटखटाएगी घर की साँकल
रोमानी फ़िज़ा फिर से चौखट सजायेगी
देखना ये आफ़ताब फिर सुर्ख़-ओ-हसीन होगा
तुम्हारी बाहों में लेटकर फ़लक़ फिर रंगीन होगा
गोलगप्पे की चाहत तुम्हारी ज़ाया न जायेगी
दौर-ए-वबा के बाद ज़िन्दगी, फिर लौट आयेगी
अभी से उम्मीदों के, यूँ न चराग़ बुझाओ
तुम दिल में इक छोटी सी शमअ जलाओ
देखना दोस्त गले मिलेगा, माशूक़ बाहों में होगा
महीनों का फिसला हुआ वक़्त, पनाहों में होगा
इश्क़ के गुंचों से फिर खिलेगा बाग़बान
दिल सुनायेगा मुहब्बत की वही दास्तान
पुरानी ख़ुशबू महकेगी साँसों में बसर
सजेगा धजेगा फिर से अपना शहर
मिट जायेंगे जो हैं दिलों में, दूरी के निशान
देखना जानां, फिर मुस्कुरायेगा हिन्दुस्तान
देखना जानां, फिर मुस्कुरायेगा हिन्दुस्तान।
~ प्रशान्त ‘बेबार’
नज़्म का उन्वान : फ़ासला रखो
ओ ! मेरे अज़ीज़ो-अकरबा
ओ ! मेरे हमनफ़स, मेरे हमदम
यक़ीनन अभी ग़मगीं है ज़िन्दगी
दिल ख़ौफ़ज़द है और आँखें नम
वबा के दहाने में सारा जहां क़ैद है
लिबास-ए-ख़ुदा का रंग सुफ़ैद है
मगर नज़दीकियां, हाय! दुश्वारी है
क़फ़स में ज़िन्दगी मौत पे भारी है
मेरे हमदम अभी ज़माने की नब्ज़ नासाज़ है
हर कूचे से उठती बस सिसकी की आवाज़ है
अभी हमें तल्ख़ी-ए-तन्हाई का घूँट पीना है
दरिया-ए-वक़्त को कतरा कतरा जीना है
मेरे साथी, मेरे हमसफ़र
सादिक़ जज़्बे से अपनों की फ़िक्र करो तुम
फ़ासलों से ही जीत है इसका ज़िक्र करो तुम
फ़ासला न रक्खा, देखो शिकंजा कस गया
घुटकर जीने का ख़ौफ़ नस-नस में बस गया
फ़ासला रखो कि स्याह अंधी रात पसर रही है
फ़ासला रखो कि मुल्क़ पे क्या-क्या गुज़र रही है
फ़ासला रखो कि मज़दूर के पैरों में छाले फूट रहे हैं
फ़ासला रखो कि यहाँ बेटों की मौत पे बाप टूट रहे हैं
फ़ासला रखो कि नयी दुल्हन तक हिज्र में तड़प रही है
फ़ासला रखो कि बेवा पति की लाश को बिलख रही है
फ़ासला रखो कि लाखों पेट को रोटी नसीब नहीं है
फ़ासला रखो कि गिरजा में अब बची सलीब नहीं है
फ़ासला रखो कि अपनी माँ को अभी तीरथ कराना है
फ़ासला रखो कि उस पुराने दोस्त को गले लगाना है
फ़ासला रखो कि आँखों में नींद लौट आएगी
फ़ासला रखो कि ज़िन्दगी फिर से मुस्कुरायेगी
फ़ासला रखो कि महबूब के लबों पे शबनम ढलेगी
फ़ासला रखो कि वो हँसी फ़िज़ा में फिर से घुलेगी
मेरे दोस्त, तुम दिल में हौसला रखो
बस दिल-ओ-ज़हन से क़रीब आओ
मगर इक दूजे से अभी फ़ासला रखो
तुम फ़ासला रखो !
तुम फ़ासला रखो !
— प्रशान्त ‘बेबार’
एक प्यार का नग़मा है ..
ओ री चंदा
ओ री लाड़ो
तू चुप है तो, तू गुम है तो
गुम है ये आसमां,
गुम है मेरा जहां
हां…आँ.. आँ..आँ..
ओ री चंदा..
{देख चंदा मामा के..
माथे पे ताता हो गयी} -2
तू क्यों रोये चंदा..-2
तू है मेरा.. शेरा ।
ओ री चंदा..
ओ री लाड़ो
तू चुप है तो, तू गुम है तो
गुम है ये आसमां,
गुम है मेरा जहां
हां…आँ.. आँ..आँ..
ओ री चंदा..
थक गयी है तो क्या
यूँ कब तू थक के रुक गयी…
क्यों तू हारे चंदा…2
तू है मेरा शेरा…
ओ री चंदा
ओ री लाड़ो
Note: The above lyrics is registered with Screenwriters Association of India, Mumbai. Unsolicited use will be considered as copyright infringement.
आदमी की क़ैद में यहाँ मौत है चलती हुई
जिस्म की बोटी-बोटी है रेत में मिलती हुई
तुम कहो, कैसे तुम्हें यूँ घर में बैठे ग़म हुआ
कौन सा बेटा भतीजा, घर तुम्हारे कम हुआ
इक टीस की सीटी बजती है,
पसरा धुंध-धुआँ सब ओर है
सन्नाटों में……. शोर है
कालिख़ मलती भोर है
दो रोटी थीं, कुचले लत्ते थे
कुछ वक़्त के सूखे पत्ते थे
कुछ दर्द चले, कुछ घाव चले
कुछ थके-थके से पाँव चले
काली रात आँख में बसी रही
मौत दबी सी……. छुपी रही
जब ख़्वाब का इंजन चलता है
हर नींद का कतरा कटता है
गहरी नींद बड़ी….घनघोर है
हुकूमतों में…….. ज़ोर है
सन्नाटों में……. शोर है
कालिख़ मलती भोर है
Note: The above lyrics is registered with Screenwriters Association of India, Mumbai. Unsolicited use will be considered as copyright infringement.
अफ़साना लिख रहा हूँ ..
कुछ तो लोग कहेंगे ..
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जन कवि बनने का साहस बहुत कम लोगों में होता है।आपकी कविताओं में गहराई से उतरते हुए, पाठक शब्दों की शुद्धता का एहसास करता है । मैं कामना करता हूँ कि आप अपनी निस्संदेह सुखदायक व वास्तविक जीवन से जुड़ी कविताओं के माध्यम से लाखों दिलों को जीतें। शुभकामनाएँ ..
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तुम अगर साथ देने का वादा करो ..