ज़िन्दगी ख़त्म से शुरू होती

बड़ी अजीब सी है ये ज़िंदगी
और बड़ी अजीब इसकी शुरुआत
सुना था, चिंगारी से लौ बनती है
पर यहाँ तो दो लौ मिल
एक चिंगारी पैदा करती हैं

शुरुआत से भी ज्यादा गर कुछ अजीब है
तो वो है इसका अंजाम,
रेत की घड़ी सा पल पल गिरना
और एक रोज़ ख़त्म हो जाना
ज़िन्दगी में इतनी मशक़्क़त ,
इतने फजीते, किसलिए ?
बस एक मौत के लिए ?

फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता
पहले हमारा इन्तेकाल होता,
कम से कम कुछ न सही
अंजाम का क़िस्सा तो ख़त्म होता

आँख खुलती तो कहीं बुज़ुर्गखाने में
काँपती हड्डियों में पैदा होते
शुरु में ठिठुरते, सिकुड़ते फिर धीरे धीरे
हर दिन बेहतर होते जाते
और जिस दिन मज़बूत हो जाते
वहाँ से धक्के देके
निकाल दिए जाते
और कहा जाता
जाओ ! जाके पेंशन लाना सीखो

फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता
फिर हम कुछ और बरस की पेंशन बाद
दफ़्तर को अपने कदम बढ़ाते
एक महीना और घिसते
फिर पहली तनख़्वाह पाते
एक नई घड़ी, नए जूते लाते
कुछ पैंतीस बरस धीरे धीरे,
माथे की हर उलझन सुलझाते
और फिर जैसे ही जवानी आती
महफ़िल में मशग़ूल हो जाते

शराब, शबाब और क़बाब
आख़िर किसको ना भाते
दिल में सिर्फ़ ज़ायका जमता
कोलेस्ट्रॉल का खौफ़ नहीं

फिर जैसी मौज ऊँची सागर की
वैसे हौंसले मैट्रिक में आते
अब तक सब रंग देख चुके थे
प्राइमरी भी पार कर ही जाते

फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता
एक सुबह जब आँख खुलती
ख़ुद को नन्हा मुन्ना पाते
जो ऊँघ रहा है बिस्तर में
कि बस घास में दौड़ूँ, यही धुन है

फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता
ना उम्मीदों का बोझ रहता
ना ज़माने की कोई फ़िकर
बस मेरा गुड्डा, मेरी गुड़िया
मेरा अपना शहर ।

और एक सुहानी रात
जब नाच रहा था चाँद
आसमाँ के आँगन में
हम एक नई जान बन
कभी किसी की गोदी में
तो कभी किसी सीने पे आते

और इस आखिरी पड़ाव पे,
अपनी ज़िंदगी के
वो आख़िरी नौ महीने
हम रहते ख़ामोश पर चौकस
तैरते हुए रईसी में
जहाँ हमेशा गर्म पानी है,
एक थपकी भर से
रूम सर्विस आ जाती है,
और जब भी मन करे
कोई सर सहला ही देता है

वहीं कहीं किसी
गुमनाम लम्हे में
हसरत और ज़रूरत के बीच
हम एहसास बन,
सिर्फ़ एक एहसास बन
कहीं अनंत में खो जाते

फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता,
कि ज़िन्दगी ख़त्म से शुरू होती ।

 

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