याद और कैलेंडर

एक-एक कर
कितनी रातों की राख झड़ गयी,
और गिर पड़ीं
झुलसी हुई दुपहरी, मानूस शामें।

एक-एक कर
कितनी सुबहों का चूरा
गिरता रहा कैलेंडर से,
रोज़ झाड़ू से सूखे दिन झाड़कर
फेंकता रहा हूँ बाहर

आ जाओ अब, कि
दीवार पे कील से
…सूनापन टँगा है।

~ प्रशान्त ‘बेबार’

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