सन्नाटों में शोर है

आदमी की क़ैद में यहाँ मौत है चलती हुई
जिस्म की बोटी-बोटी है रेत में मिलती हुई
तुम कहो, कैसे तुम्हें यूँ घर में बैठे ग़म हुआ
कौन सा बेटा भतीजा, घर तुम्हारे कम हुआ

इक टीस की सीटी बजती है,
पसरा धुंध-धुआँ सब ओर है
सन्नाटों में……. शोर है
कालिख़ मलती भोर है

दो रोटी थीं, कुचले लत्ते थे
कुछ वक़्त के सूखे पत्ते थे
कुछ दर्द चले, कुछ घाव चले
कुछ थके-थके से पाँव चले

काली रात आँख में बसी रही
मौत दबी सी……. छुपी रही
जब ख़्वाब का इंजन चलता है
हर नींद का कतरा कटता है

गहरी नींद बड़ी….घनघोर है
हुकूमतों में…….. ज़ोर है

सन्नाटों में……. शोर है
कालिख़ मलती भोर है

Note: The above lyrics is registered with Screenwriters Association of India, Mumbai. Unsolicited use will be considered as copyright infringement.

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