ग़ज़ल में वचन के नज़रिए से रदीफ़ दोष

मसलन एक मिसरा है “बात साक़ी की न टाली जाएगी”, क़ाफ़िया ‘आली’ की तुक पे और रदीफ़ ‘जाएगी’। इस मिसरे में एक बात स्पष्ट है-

१) वाक्य का object यानी कर्म (इस मिसरे में #बात), जो passive voice में verb यानी क्रिया के वचन को निर्धारित करता है, वो भी एकवचन में है। अर्थात वाक्य में कोई भी ऐसा object (कर्म) नहीं लिया जाएग जो बहुवचन में हो, क्योंकि तब रदीफ़, जो इस मिसरे में क्रिया है, को भी बदलना होगा, यानी बहुवचन करना होगा, जो सम्भव नहीं क्योंकि तब ग़ज़ल की रदीफ़ ही बदल जाएगा ।
इसका सीधा सा अर्थ है कि नीचे दर्शाए गए मिसरे, ‘जाएगी’ रदीफ़ के लिए ग़लत होंगे –

1. #वहश्तें मुझसे न पाली जाएगी- ग़लत
(सही- मुझसे ये वहशत न पाली न जाएगी)

2. कुछ तो #तरकीबें निकाली जाएगी- ग़लत
(सही- युक्ति कुछ ऐसी निकाली जाएगी)

3. कब तलक #उम्मीदें पाली जाएगी- ग़लत
(सही- कब तलक उम्मीद पाली जाएगी)

4. #ग़लतियाँ मेरी निकाली जाएगी- ग़लत
(सही- मेरी ही ग़लती निकाली जाएगी)

5. जब #सदाएँ मेरी ख़ाली जाएगी- ग़लत
(सही- जब मेरी अरदास ख़ाली जाएगी)

ऊपर के सभी वाक्यों में वाक्य का कर्म, जो कि कर्ता की भूमिका में है, बहुवचन में होने के कारण वाक्य की क्रिया भी बहुवचन होगी, यानी ‘जाएगी’ की जगह ‘जाएँगी’ होगी, मगर रदीफ़ ‘जाएगी’ होने के कारण ऐसा करना संभव नहीं होगा जिस कारण हमें वहशतें, तरकीबें, उम्मीदें, ग़लतियाँ, सदाएँ जैसे शब्दों (वाक्य में कर्ता के रूप में कर्म) को बदलना होगा.

तो देखिए कि किसी ग़ज़ल में रदीफ़ निभाने के लिए लिंग के साथ साथ वचन का भी कितना महत्व है!

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