दरीचे

आज की आधुनिक हिंदी-उर्दू (हिंदुस्तानी) कविता महज़ किसी हसीना के हुस्न और फ़क़त गुलो-बुलबुल के नग़मों का व्याख्यान ही नहीं है, बल्कि उसमें आज की रोज़मर्रा की ज़िंदगी, आम आदमी का दर्द, क़ुदरती संवेदनाएँ, प्यार की हक़ीक़तें, सरकार से शिकायतें, मुल्क से मुहब्बतें, सामाजिक क्रांति और ज़िंदगी के फ़लसफ़े भी बख़ूबी शामिल हैं। जिस तरह दरीचे के मानी हैं – झरोखे , ठीक उसी प्रकार इस क़िताब की सभी नज़्में किसी न किसी झरोखे से झाँक रही हैं। कुछ झरोखे (दरीचे) चैन-ओ-सुकून की ओर खुलते हैं तो कुछ टीस की जानिब।

कुछ नज़्में रूह को झकझोर देती है तो कुछ मन को तृप्त कर देती हैं। मज़े की बात ये है कि पूरी क़िताब में दरीचे नाम से कोई भी नज़्म मौजूद नहीं है बल्कि ज़िंदगी के अलग-अलग एहसासों के झरोखे हैं, जिनसे नज़्में अपने मिज़ाज के अनुसार झाँक रहीं हैं। कुछ नज़्में माँ के साथ होने जैसा सम्पूर्ण अहसास देती हैं तो कुछ दुनियादारी के मामूलीपन की कोफ़्त टटोलती हैं। कुछ नज़्में धुन की अंगुली पकड़ गुनगुनाती मालूम होती हैं तो कुछ नज़्में बीज के रूप में और नई नज़्मों को पैदा करती हैं। हर कविता के साथ उसका अंग्रेज़ी तर्जुमा (अनुवाद) भी शामिल है जो ‘दरीचे’ की आवाज़ को ज़बानी सरहद के पार ले जाने की कोशिश है।

उम्र के अलग-अलग पड़ाव से गुज़रती ये नज़्में आपको भी ज़िंदगी के उन झरोखों से झाँकने पे
मजबूर कर देंगी जिनको आपने जिया तो होगा मगर बहते वक़्त में वो एहसास ज़हन में अनजानी
करवट लिए छुप गये होंगे । चूँकि हर नज़्म की तह में एक कहानी छुपी है और किरदार जी रहे हैं,
उम्मीद है कि ‘दरीचे’ के सफ़र में आप भी इन कहानियों, किरदारों और एहसासों से जुड़कर इस
सफ़र का आनंद लेंगे।

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