याद और कैलेंडर

याद और कैलेंडर

एक-एक कर कितनी रातों की राख झड़ गयी, और गिर पड़ीं झुलसी हुई दुपहरी, मानूस शामें। एक-एक कर कितनी सुबहों का चूरा गिरता रहा कैलेंडर से, रोज़ झाड़ू से सूखे…
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