इससे बढ़कर मैं और क्या करता- ग़ज़ल

इससे बढ़कर मैं और क्या करता
नाम उसके मिरी रज़ा करता

उससे कैसे भला गिला कर दूँ
मरके भी दिल जिससे वफ़ा करता

बह गयी आँख से मुहब्बत सब
कब तलक मैं उससे दगा करता

भूल सकते उसे हमेशा हम
काश ऐसा कभी ख़ुदा करता

ख़त्म होती जो गर ये तन्हाई
जीने मरने का फ़ैसला करता

रात भर चाँद का नशा करलूँ
पूरी बोतल पे इब्तिदा करता

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